कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका| Important Points

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कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका

भारत का संविधान भारत को एक सार्वभौमिक, समाजवादी गणराज्य की उपाधि देता है। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, जिसका द्विसदनात्मक संसद वेस्टमिन्स्टर शैली के संसदीय प्रणाली द्वारा संचालित है।

हमारे संविधान में राज्य की शक्तियों को तीन अंगों में बाँटा गया है- कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका। इसके अनुसार विधायिका का काम विधि निर्माण करना, कार्यपालिका का काम विधियों का कार्यान्वयन तथा न्यायपालिका को प्रशासन की देख-रेख, विवादों का फैसला और विधियों की व्याख्या करने का काम सौंपा गया है।

न्यायपालिका

भारत की न्यायपालिका के बारे में कहा जा सकता है कि जैसा इसका नाम है वैसा ही इसका काम है। न्यायपालिका का मूल काम, हमारे संविधान में लिखे कानून का पालन करना और करवाना है तथा कानून का पालन न करने वालों को दंडित करने का अधिकार भी इसे प्राप्त है। भारतीय न्यायिक प्रणाली को अंग्रेज़ों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाया था और उसी के अनुसार यह आज भी देश में कानून व्यवस्था बनाए रखने का काम करती है। न्यायाधीश अपने आदेश और फैसले संविधान में लिखे कानून के अनुसार लेते हैं। न्‍यायपालिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिये है। न्‍यायपालिका विवादों को सुलझाती है, इसलिये इसकी स्‍वतंत्रता की रक्षा ज़रूर होनी चाहिये।

विधायिका

भारत संघ की विधायिका को संसद कहा जाता है और राज्यों की विधायिका विधानमंडल/ विधानसभा कहलाती है। देश की विधायिका यानी संसद के दो सदन हैं- उच्च सदन राज्यसभा तथा निचला सदन लोकसभा कहलाता है। 

राज्‍यसभा के लिये अप्रत्‍यक्ष चुनाव होता है, इसमें राज्‍यों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्‍यों का चुनाव एकल हस्‍तांतरणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्‍व प्रणाली के अनुसार राज्‍यों की विधानसभाओं द्वारा निर्धारित तरीके से होता है। राज्‍यसभा को भंग नहीं किया जाता, बल्कि हर दूसरे वर्ष में इसके एक-तिहाई सदस्‍य सेवानिवृत्‍त होते हैं। वर्तमान में राज्‍यसभा में 245 सीटें हैं। उनमें से 233 सदस्‍य राज्‍यों और केंद्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्‍व करते हैं और 12 सदस्‍य राष्‍ट्रपति द्वारा नामजद होते हैं।

लोकसभा जनप्रतिनिधियों की सभा है जिनका चुनाव वयस्‍क मतदान के आधार पर प्रत्‍यक्ष चुनाव द्वारा होता है। संविधान द्वारा परिकल्पित सदन के सदस्‍यों की अधिकतम संख्‍या 552 है (530 सदस्‍य राज्‍यों का प्रतिनिधित्‍व करने के लिये, 20 केंद्रशासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्‍व करने के लिये और एंग्लो-इंडियन समुदाय के दो सदस्‍य राष्‍ट्रपति द्वारा नामजद किये जा सकते हैं, यदि उसके विचार से उस समुदाय का सदन में पर्याप्‍त प्रतिनिधित्व नहीं है)।

वर्तमान में लोकसभा में 545 सदस्‍य हैं। इनमें से 530 सदस्‍य प्रत्‍यक्ष रूप राज्‍यों से चुने गए हैं और 13 केंद्रशासित क्षेत्रों से, जब‍कि दो को एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्‍व करने के लिये राष्‍ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है। लोकसभा का कार्यकाल इसकी पहली बैठक की तारीख से पाँच वर्ष का होता है, जब तक कि इसे पहले भंग न किया जाए।

कार्यपालिका

संघीय कार्यपालिका में राष्‍ट्रपति, उपराष्‍ट्रपति और राष्‍ट्रपति को सहायता करने एवं सलाह देने के लिये अध्‍यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री के साथ मंत्रिपरिषद होती है। केंद्र की कार्यपालिका शक्ति राष्‍ट्रपति को प्राप्‍त होती है, जो उसके द्वारा केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर संविधान सम्मत तरीके से इस्तेमाल की जाती है। राष्‍ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सदस्‍य तथा राज्‍यों में विधानसभा के सदस्‍य समानुपातिक प्रतिनिधित्‍व प्रणाली के तहत मतदान करते हैं। उपराष्‍ट्रपति के चुनाव में एकल हस्तांतरणीय मत द्वारा संसद के दोनों सदनों के सदस्‍य मतदान के पात्र होते हैं।

राष्‍ट्रपति को उसके कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये प्रधानमंत्री के नेतृत्‍व में मंत्रिपरिषद होती है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्‍ट्रपति द्वारा की जाती है और वह प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्‍य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्‍तरदायी होती है। संघ के प्रशासन या कार्य और उससे संबंधित विधानों और सूचनाओं के प्रस्‍तावों से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों की सूचना राष्‍ट्रपति को देना प्रधानमंत्री का कर्त्तव्य है। मंत्रिपरिषद में कैबिनेट मंत्री, राज्‍य मंत्री (स्‍वतंत्र प्रभार) और राज्‍य मंत्री होते हैं।

कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका

तीनों के बीच संतुलन बेहद ज़रूरी

  • विधायिका, कार्यपालिका और न्या‍यपालिका को अपने सभी उत्तरदायित्‍व पूर्ण करने चाहिये तथा इन तीनों के बीच संतुलन को बनाए रखने के लिये किसी को भी दूसरे के कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
  • विभिन्न प्रावधानों के तहत संविधान ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच संबंधित कार्यप्रणाली में अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिये स्पष्ट रूप से रेखा खींची है।
  • भारत के संविधान में शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन सरकार के विभिन्न अंगों के कार्यों में पर्याप्त अंतर है। इस प्रकार सरकार का एक अंग दूसरे अंग के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
  • अनुच्छेद 121 और 211 विधायिका को अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में किसी भी न्यायाधीश के आचरण पर चर्चा करने से रोकते हैं, वहीं दूसरी तरफ अनुच्छेद 122 और 212 अदालतों को विधायिका की आंतरिक कार्यवाही पर निर्णय लेने से रोकते हैं।
  • संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) विधायकों को उनकी भाषण की स्वतंत्रता और वोट देने की आज़ादी के संबंध में अदालतों के हस्तक्षेप से रक्षा करते हैं।

जब कार्यपालिका अपने दायित्व निर्वहन में विफल रहती है, तब न्यायपालिका उसके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करती है। 1972 में केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 13 जजों की अब तक की सबसे बड़ी संविधान पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया था कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। इस सिद्धांत के तहत संविधान में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र की लक्ष्मण रेखा स्पष्ट खींच दी गई है।

कानून बनाना विधायिका का काम है, इसे लागू करना कार्यपालिका का और विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के संविधान सम्मत होने या न होने की जाँच करना न्यायपालिका का काम है। इन तीनों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिये यह ज़रूरी है कि न्यायपालिका, संसद और कार्यपालिका के बीच एक-दूसरे के लिये आपसी सम्मान होना चाहिये और इन सभी पर किसी प्रकार का कोई ‘बाहरी दबाव’ नहीं होना चाहिये।

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