रूस और यूक्रेन (Russia-Ukraine) के बीच युद्ध के प्रमुख कारण
यूक्रेन में रूसी सैन्य कार्रवाई शीत युद्ध के बाद की सुरक्षा व्यवस्था में अस्थिरता को दर्शाता है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के पीछे उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) को माना जाता है। 1949 में नाटो अस्तित्व में आया। यूक्रेन नाटो का हिस्सा बनना चाहता है, लेकिन रूस इसके खिलाफ है।
1991 में सोवियत संघ के पतन के साथ यूक्रेन एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया। यह पहले रूसी साम्राज्य का हिस्सा था और बाद में सोवियत गणराज्य बन गया और अपनी रूसी शाही विरासत को खत्म कर दिया, जिससे पश्चिम के साथ घनिष्ठ संबंध बन गए।
रूस और यूक्रेन के बीच तनाव नवंबर 2013 में तब शुरू हुआ जब यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच का कीव में विरोध शुरू हुआ। जबकि उन्हें रूस का समर्थन था। यानुकोविच को अमेरिका-ब्रिटेन समर्थित प्रदर्शनकारियों के विरोध के कारण फरवरी 2014 में देश छोड़कर भागना पड़ा। इससे खफा होकर रूस ने दक्षिणी यूक्रेन के क्रीमिया पर कब्जा कर लिया। इसके बाद वहां के अलगाववादियों को समर्थन दिया। इन अलगाववादियों ने पूर्वी यूक्रेन के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। 2014 के बाद से रूस समर्थक अलगाववादियों और यूक्रेन की सेना के बीच डोनबास प्रांत में संघर्ष चल रहा था। इससे पहले जब 1991 में यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ था तब भी कई बार क्रीमिया को लेकर दोनों देशों में टकराव हुआ।
- आजादी के बाद से ही देश भ्रष्टाचार और आंतरिक विभाजन से जूझ रहा है। देश का पश्चिमी पक्ष पश्चिम के साथ एकीकरण चाहता है जबकि पूर्वी क्षेत्र रूस के साथ।
- संघर्ष तब शुरू हुआ जब यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच ने मास्को के साथ घनिष्ठ संबंधों के पक्ष में यूरोपीय संघ के साथ एक सहयोग समझौते को खारिज कर दिया। प्रदर्शनकारियों ने उन्हें गरिमा की क्रांति के रूप में जाना जाता है। बदले में, रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा कर लिया और पूर्वी यूक्रेन के अलगाववादी विद्रोह का समर्थन किया।
- इसके तुरंत बाद, इसने देश के औद्योगिक गढ़ डोनबास पर हमला कर दिया। यूक्रेन की सेना और रूस समर्थित अलगाववादियों के बीच सशस्त्र संघर्ष में 14,000 से अधिक लोग मारे गए।
- यूक्रेन और पश्चिम ने रूस पर सैनिकों को तैनात करने और विद्रोहियों को हथियार भेजने का आरोप लगाया, इस आरोप का रूस ने खंडन किया। हालांकि, रूस ने यूक्रेन को हथियारों और संयुक्त सैन्य अभ्यास के साथ सहायता करने के लिए अमेरिका और नाटो की कड़ी आलोचना की। राष्ट्रपति पुतिन ने भी कुछ नाटो सदस्यों द्वारा यूक्रेन में सैन्य प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने की योजना पर चिंता व्यक्त की क्योंकि यह यूक्रेन के नाटो में शामिल हुए बिना भी इस क्षेत्र में सैन्य पैर जमाने की सुविधा प्रदान करेगा।
- रूस ने अपनी सुरक्षा मांगों में कहा कि वह नहीं चाहता कि यूक्रेन नाटो का सदस्य देश बने और वह अपनी सीमाओं के पास सभी नाटो अभ्यासों को रोकना चाहता है और मध्य और पूर्वी यूरोप से नाटो सैनिकों की वापसी चाहता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि नाटो में यूक्रेन के प्रवेश के लिए 30 सदस्य देशों की सर्वसम्मत स्वीकृति की आवश्यकता होगी। इसके अलावा, रूस यूक्रेन को एक स्वतंत्र राज्य के बजाय अपने “प्रभाव क्षेत्र”, एक क्षेत्र के हिस्से के रूप में देखता है।
गैस पाइपलाइन विवाद भी एक वजह : रूस पाइपलाइन के जरिए गैस को यूरोप तक भेजता था। ये पाइपलाइन जिन देशों से होकर जाती थी, रूस को उन्हें ट्रांजिट शुल्क देना पड़ता था। इसमें यूक्रेन भी शामिल था। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 तक रूस हर साल करीब 33 बिलियन डॉलर का भुगतान यूक्रेन को कर रहा था। ये राशि यूक्रेन के कुल बजट की 4 फीसदी थी। रूस को समझ आ गया था कि युद्ध के हालात में यूक्रेन उसके पैसे का ही इस्तेमाल करेगा। इस वजह से उसने नया प्लान बनाया। जिसके तहत नॉर्ड स्ट्रीम -2 गैस पाइपलाइन की शुरूआत हुई। इसमें वेस्टर्न रूस से नॉर्थ ईस्टर्न जर्मनी तक बाल्टिक महासागर के रास्ते 1200 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछाई गई। वैसे तो इसमें करीब 10 बिलियन डॉलर का खर्च आया, लेकिन यूक्रेन साइड लाइन हो गया। अब रूस जर्मनी तक सीधे गैस भेज सकता है, बिना ट्रांजिट शुल्क दिए। नॉर्ड स्ट्रीम -2 की वजह से यूक्रेन और पोलैंड जैसे देश रूस से नाराज हो गए।
2014 के बाद रूस व यूक्रेन में लगातार तनाव व टकराव को रोकने व शांति कायम कराने के लिए पश्चिमी देशों ने पहल की। फ्रांस और जर्मनी ने 2015 में बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में दोनों के बीच शांति व संघर्ष विराम का समझौता कराया।
यूक्रेन का इतिहास
ये कहानी नवीं सदी में मौजूदा यूक्रेन की राजधानी कीएव से शुरू होती है। कीएव प्रथम स्लाविक साम्राज्य की राजधानी थी। इस राज्य का गठन स्कैंडिनेवियन क़बीले ने किया था जो स्वंय को रूस कहते थे। यही महान मध्याकालीन राज्य बाद में कीएवियन रूस कहलाया। रूस और यूक्रेन दोनों का जन्म इसी महान साम्राज्य से हुआ है। 12वीं सदी में मॉस्को की स्थापना हुई। तब ये शहर कीएवियन रूस साम्राज्य की उत्तर-पूर्वी सरहद थी।
- इस साम्राज्य में ओर्थोडॉक्स क्रिश्चियन धर्म का बोलबाला था। साल 988 में कीएव सम्राट व्लादिमीर प्रथम या सेंट व्लादिमीर स्वयातोस्लाविच द ग्रेट ने इस मत को अपनाया था। व्लादिमीर प्रथम ने मध्यकालीन रूस राज्य का विस्तार मौजूदा बेलारूस, रूस और यूक्रेन से लेकर बालटिक सागर तक किया।
- इस सारे क्षेत्र में बोली जाने वाली कई बोलियों से बेलारूसी, यूक्रेनी और रूसी भाषाएं निकलीं। ये साझी विरासत इन तीनों देशों को सांस्कृतिक रूप से जोड़ती है।
- 13 वीं सदी में रूस राज्य के कई सूबों पर मंगोल साम्राज्य का कब्ज़ा हो गया था। लेकिन 14 वीं सदी में कमज़ोर होते मंगोल राज का फ़ायदा मॉस्को और लिथुएनिया नाम की दो सूबों को हुआ। इन दोनों ने रूस को आपस में बांट लिया।
- कीएव और इसके आस-पास के क्षेत्र पर लिथुएनिया सूबे का कब्ज़ा हुआ। यही लोग यहां रेनेसां और सुधारवादी विचारधारा लेकर आए।
- पश्चिमी यूक्रेन में कई लोग रशियन ऑर्थोडॉक्स चर्च के अनुयायी नहीं है। वे ईस्टर्न कैथोलिक चर्च को मानने वाले हैं। ये मत पोप को अपना अध्यात्मिक गुरु मानती है।
- पश्चिम के कई देशों में जब राष्ट्रवाद की लहर चली। इसका असर पोलैंड से लेकर ऑस्ट्रिया तक नज़र आया। इस दौरान यहां कई लोगों ने रूस के लोगों से अलग दिखाई देने के लिए ख़ुद को ‘यूक्रेनी’ बताना शुरू कर दिया।
- लेकिन, 20 वीं सदी में रूस की क्रांति हुई और सोवियत संघ का गठन हुआ। सोवियत नेता जोसेफ़ स्टालिन ने दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति पर पोलैंड से पश्चिमी यूक्रेन का अधिकार हासिल कर लिया।
- 1950 के दशक में मॉस्को ने क्राइमिया को यूक्रेन के हवाले कर दिया। ये सोवियत संघ का ही हिस्सा था। इस फ़ैसले के बाद भी रूस से गहरे संपर्क कायम रहे और ब्लैक सी में रूस का जो बेड़ा था, वो सांकेतिक रूप से इसकी पुष्टि करता था।
- 1930 के दशक में सोवियत संघ का हिस्सा रहे यूक्रेन के लाखों लोग स्टालिन की ओर से जबरन थोपे गए अकाल की वजह से मारे गए। इसके बाद स्टालिन ने वहां बड़ी संख्या में सोवियत लोगों को बसाया। इनमें से कई यूक्रेनी भाषा नहीं बोल पाते थे। इस इलाके से उनके संपर्क और संबंध भी बेहद सीमित थे। ये कोशिश पूर्वी इलाक़े को फिर से बसाने की थी।
- सोवियत सरकार ने यूक्रेन पर और ज़ोरदारी के साथ रूस का प्रभाव थोपने की कोशिश की। कई बार यूक्रेन को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही थी।
- हालांकि, सांस्कृति रूप से सोवियत संघ कभी यूक्रेन पर आधिपत्य साबित नहीं कर सका।
- साल 1991 में सोवियत संघ बिखर गया और साल 1997 में रूस और यूक्रेन के बीच संधि हुई। इसके जरिए यूक्रेन की सीमाओं की अखंडता की पुष्टि हुई। लेकिन देश के अलग-अलग इलाकों में कुछ ऐसी खामियां रह गईं जिससे दरारें बनी रही हैं।
- यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में लोगों के रूस के साथ गहरे रिश्ते हैं। यहां रहने वाले लोग रूसी भाषा बोलते हैं और रुढिवादी हैं। यूक्रेन के पश्चिमी हिस्से में पश्चिमी देशों का प्रभाव नज़र आता है। पोलैंड और हंगरी का असर यहां दिखता है। यहां रहने वाले कैथलिक हैं और अपनी भाषा बोलते हैं।
रूस क्या चाहता है?
- रूस चाहता है कि नाटो पूर्वी यूरोप में अपना विस्तार रोक दे। पुतिन नाटो से गारंटी की मांग कर रहे हैं कि यूक्रेन को उसकी सदस्यता नहीं दी जाएगी. वह यह भी चाहता है कि नाटो 1997 से पहले की स्थिति में वापस आ जाए और रूस के पड़ोस में हथियारों की तैनाती को रोक दे।
- इसके अतिरिक्त, रूस ने उन 14 देशों की सदस्यता को चुनौती दी है जो वारसॉ संधि का हिस्सा थे, जिस पर 1955 में नाटो के गठन के जवाब में हस्ताक्षर किए गए थे। इसका उद्देश्य सदस्य देशों को सैन्य सुरक्षा प्रदान करना था। हालाँकि, सोवियत संघ के विघटन के बाद, संधि बेमानी हो गई।
- द्वितीय विश्व युद्ध ने दुनिया को दो शिविरों में छोड़ दिया। अमेरिका और सोवियत संघ दो महाशक्तियां थीं। 25 दिसंबर, 1991 को सोवियत संघ 15 नए देशों में टूट गया: आर्मेनिया, अजरबैजान, बेलारूस, एस्टोनिया, जॉर्जिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, लातविया, लिथुआनिया, मोल्दोवा, रूस, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन और उजबेकिस्तान।
- इसके बाद अमेरिका एकमात्र महाशक्ति बना रहा। अमेरिका के नेतृत्व में नाटो ने अपना विस्तार जारी रखा। सोवियत संघ से बाहर आए देश नाटो में शामिल होने लगे। एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया 2004 में नाटो में शामिल हुए। जॉर्जिया और यूक्रेन को 2008 में नाटो सदस्यता की पेशकश की गई थी लेकिन वे सैन्य गठबंधन में शामिल नहीं हो सके।
- पुतिन ने नाटो के विस्तार पर आपत्ति जताई है। “अमेरिका मिसाइलों के साथ हमारे दरवाजे पर है। अगर कनाडा या मैक्सिको की सीमाओं पर मिसाइलें तैनात की जाती हैं तो अमेरिका को कैसा लगेगा?” पुतिन ने दिसंबर 2021 में पूछा था। अगर यूक्रेन नाटो का सदस्य बन जाता है, तो रूस पूरी तरह से घेर लिया जाएगा जो कि पुतिन के लिए स्वीकार्य नहीं है।
- हाल ही में यूक्रेन ने नाटो से करीबी व दोस्ती गांठना शुरू किया। यूक्रेन के नाटो से अच्छे रिश्ते हैं। रूस चाहता है कि नाटो अपना विस्तार न करे। राष्ट्रपति पुतिन इसी मांग को लेकर यूक्रेन व पश्चिमी देशों पर दबाव डाल रहे थे।
रूसी क्रांति के नायक व्लादिमीर लेनिन ने एक बार कहा था कि ‘यूक्रेन को खोना रूस के लिए एक शरीर से अपना सिर काट देने जैसा होगा।’ यही वजह है कि रूस नाटो में यूक्रेन के प्रवेश का विरोध कर रहा है। यूक्रेन रूस की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। जब 1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रूस पर हमला किया गया तो यूक्रेन एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जहां से रूस ने अपनी सीमा की रक्षा की थी। अब अगर यूक्रेन नाटो देशों के साथ चला गया तो रूस की राजधानी मास्को, पश्चिम से सिर्फ 640 किलोमीटर दूर होगी। फिलहाल यह दूरी करीब 1600 किलोमीटर है।
घटनाओं के रूसी संस्करण के अनुसार, अमेरिकी विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने 1990 में सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव से वादा किया था कि अगर यूएसएसआर ने पूर्व और पश्चिम जर्मनी के पुनर्मिलन की अनुमति दी तो नाटो पूर्व की ओर नहीं बढ़ेगा। अभिलेखीय दस्तावेज साबित करते हैं कि ऐसी कोई प्रतिज्ञा कभी नहीं की गई थी। यहां तक कि खुद गोर्बाचेव ने भी अक्टूबर 2014 में कहा था कि उस समय इस विषय पर चर्चा नहीं हुई थी।
नाटो
- नाटो एक सैन्य गठबंधन है जिसे एक साझा सुरक्षा नीति पर काम करने का अधिकार है। यदि किसी नाटो सदस्य देश पर आक्रमण किया जाता है, तो इसे सभी नाटो सदस्य देशों पर आक्रमण माना जाएगा। सभी नाटो सदस्य देश आक्रमण के खिलाफ कार्रवाई करेंगे।
- द्वितीय विश्व युद्ध 1939 और 1945 के बीच हुआ। उसके बाद, सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप से सेना वापस लेने से इनकार कर दिया। इसने 1948 में बर्लिन की परिक्रमा की। इसने 1949 में नाटो के माध्यम से सोवियत विस्तारवाद का मुकाबला करने के लिए अमेरिका को प्रेरित किया। जब नाटो का गठन हुआ, तो उसके पास 12 सदस्य देश थे। इसमें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा, इटली, नीदरलैंड, आइसलैंड, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, नॉर्वे, पुर्तगाल और डेनमार्क शामिल थे। आज नाटो के 30 सदस्य देश हैं।
रूस बनाम नाटो
- सैन्य शक्ति हो या रक्षा खर्च, रूस और नाटो के बीच कोई तुलना नहीं है। नाटो के अनुसार, 2021 में सभी 30 सदस्य देशों का संयुक्त अनुमानित रक्षा व्यय 1,174 अरब डॉलर था। 2020 में नाटो देशों ने 1,106 अरब डॉलर खर्च किए। दूसरी ओर, रूस ने 2020 में रक्षा पर 61.7 बिलियन डॉलर खर्च किए।
- लगभग 40,000 नाटो सैनिक रूसी सेना से लड़ने के लिए तैयार हैं। यदि नाटो सीधे युद्ध में शामिल होता है, तो उसके पास 33 लाख से अधिक सैनिक होंगे। वहीं रूस के पास 8 लाख सक्रिय सैनिकों समेत करीब 12 लाख सैनिक हैं।
यूक्रेन क्यों नाटो में शामिल होना चाहता है?
- यूक्रेन के नाटो देश में शामिल होने की वजह 100 साल पुरानी है, जब अलग देश का अस्तित्व भी नहीं था। 1917 से पहले रूस और यूक्रेन रूसी साम्राज्य का हिस्सा थे। 1917 में रूसी क्रांति के बाद, यह साम्राज्य बिखर गया और यूक्रेन ने खुद को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दिया। हालांकि यूक्रेन मुश्किल से तीन साल तक स्वतंत्र रहा और 1920 में यह सोवियत संघ में शामिल हो गया। यूक्रेन के लोग हमेशा से खुद को स्वतंत्र देश मानते रहे।
- 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन को स्वतंत्रता मिली। यूक्रेन के पूर्वी और पश्चिमी दो हिस्से हैं। पूर्वी भाग में रहने वाले यूक्रेनियन खुद को रूस के करीब मानते हैं और पश्चिमी भाग में रहने वाले यूरोपीय संघ से जुड़े हुए हैं।
- रूस समर्थित विद्रोहियों का यूक्रेन के पूर्वी क्षेत्रों के बड़े हिस्से पर नियंत्रण है। इस क्षेत्र में, रूस ने डोनेट्स्क और लुहान्स्क को अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में मान्यता दी है। 2014 में रूस ने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया था।
- यूक्रेन की सेना रूस की तुलना में काफी छोटी है। रूस के पास जहां 8.5 लाख सक्रिय सैनिक हैं, वहीं यूक्रेन के पास सिर्फ 2 लाख सक्रिय सैनिक हैं। रूस का रक्षा बजट यूक्रेन के मुकाबले 10 गुना है। इन परिस्थितियों में, यूक्रेन को एक सैन्य संगठन की आवश्यकता है जो इसकी सुरक्षा की गारंटी दे सके और यूक्रेन के लिए नाटो से बेहतर कोई नहीं है।
- 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो यूक्रेन सहित 15 नए देशों का गठन हुआ। सही मायनों में यूक्रेन को साल 1991 में आजादी मिली। हालांकि, यूक्रेन शुरू से ही समझता है कि वह रूस से कभी भी अपने दम पर मुकाबला नहीं कर सकता और इसलिए वह एक ऐसे सैन्य संगठन में शामिल होना चाहता है जो उसकी आजादी को महफूज रख सके। नाटो से बेहतर संगठन कोई और नहीं है जो यूक्रेन की रक्षा कर सके।
- यूक्रेन के पास न तो रूस जैसी बड़ी सेना है और न ही आधुनिक हथियार। यूक्रेन में 1.1 मिलियन सैनिक हैं जबकि रूस के पास 2.9 मिलियन सैनिक हैं। यूक्रेन के पास 98 लड़ाकू विमान हैं, रूस के पास करीब 1500 लड़ाकू विमान हैं। रूस के पास यूक्रेन की तुलना में अधिक हमलावर हेलीकॉप्टर, टैंक और बख्तरबंद वाहन भी हैं।
जानिए इसराइल-फ़लस्तीन विवाद के बारे में
अमेरिका की भूमिका
- रूस ने यूक्रेन के लिए बुडापेस्ट मेमोरेंडम सिक्योरिटी एश्योरेंस का उल्लंघन किया क्योंकि उसने क्रीमिया पर कब्जा कर लिया और डोनबास संघर्ष का समर्थन किया। अपने परमाणु शस्त्रागार को छोड़ने की प्रतिबद्धता के बदले यूक्रेन की संप्रभुता की रक्षा के लिए 1994 में अमेरिका, ब्रिटेन और रूस के बीच बहुपक्षीय समझौता किया गया था।
- मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, यूक्रेन का इस्तेमाल सिर्फ अपनी छवि मजबूत करने के लिए कर रहे हैं। पिछले साल अमेरिका को अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी थी। इसके अलावा ईरान में अमेरिका कुछ हासिल नहीं कर पाया और तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उत्तर कोरिया लगातार मिसाइल परीक्षण भी कर रहा है। इन घटनाओं ने अमेरिका की सुपर पॉवर इमेज को नुकसान पहुंचाया है। यही वजह है कि जो बाइडेन यूक्रेन-रूस विवाद के साथ इसकी भरपाई करना चाहते हैं।
अमेरिका के अलावा ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने भी यूक्रेन का समर्थन किया है। इन देशों का समर्थन कब तक चलेगा यह एक बड़ा सवाल है क्योंकि यूरोपीय देश अपनी गैस की एक तिहाई जरूरत के लिए रूस पर निर्भर हैं। अब अगर रूस इस गैस की आपूर्ति बंद कर देता है तो इन देशों में भयानक पॉवर क्राइसिस होगा।
अमेरिका की हो रही आलोचना
यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर अमेरिका चौतरफा आलोचना का सामना कर रहा है। आम लोगों के बीच धारणा बन रही है कि अमेरिका मुश्किल वक्त में अपने दोस्त देशों का साथ छोड़ रहा है। पिछले साल अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी के बाद तालिबान के कब्जे ने अमेरिका के सुपरपावर होने की नींव हिला दी थी। अब रही-सही कसर को रूस के हमले ने खत्म कर दिया है। अमेरिका ने साफ शब्दों में कहा है कि वह यूक्रेन की तरफ से लड़ने के लिए अपनी फौज नहीं भेजेगा। बावजूद इसके अमेरिका ने रूस के ऊपर कई तरह के आर्थिक और सैन्य प्रतिबंधों का ऐलान किया है। अमेरिका ने यूक्रेन को सैन्य और आर्थिक मदद भी दी है, लेकिन ये सभी रूसी आक्रमण के आगे नाकाफी साबित हो रहे हैं।
चीन का रुख
चीन ने खुलकर रूस का समर्थन किया है। दूसरी ओर अमेरिका के कूटनीतिक तौर पर असफल होने की खूब चर्चा हो रही है। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे और यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर लोगों के बीच अमेरिका के सुपरपावर होने का दंभ खत्म होता नजर आ रहा है।
चीन के यूक्रेन से सैन्य और व्यापारिक संबंध
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि चीन का पहला एयरक्राफ्ट कैरियर लियोनिंग को यूक्रेन से ही खरीदा था। चीन अपने युद्धपोतों के लिए गैस टरबाइन इंजन और विमानों के लिए जेट इंजन का आयात भी यूक्रेन से करता है। रूस और यूक्रेन दोनों देशों के लिए चीन कच्चे माल का सबसे बड़ा स्रोत भी है। चीन और यूक्रेन बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के जरिए रेलवे और पोर्ट के डेवलपमेंट से जुड़े कई प्रॉजेक्ट पर एक साथ काम कर रहे हैं। चीन अपने सूअरों को खिलाने के लिए हर साल यूक्रेन से भारी मात्रा में मक्के की खरीदारी भी करता है। चीन के कुल मक्के के आयात का 90 फीसदी हिस्सा अकेले यूक्रेन से आता है।
रूस के साथ भी व्यापार बढ़ा रहा चीन
चीन और रूस के बीच भी काफी घनिष्ठ संबंध हैं। दोनों देश अमेरिका को खतरे के रूप में देखते हैं। यही कारण है कि चीन और रूस पिछले कुछ साल में एक दूसरे के काफी करीब आए हैं। अमेरिकी प्रतिबंधों की काट खोजने के लिए दोनों देशों ने अपने व्यापार को भी काफी बढ़ाया है। पिछले साल चीन और रूस के बीच कुल 140 बिलियन डॉलर का व्यापार हुआ था। रूस के कुल निर्यात का 70 फीसदी हिस्सा तेल-गैस और खनिज से जुड़ा हुआ है। अकेले दोनों देशों के बीच गैस का व्यापार 100 बिलियन डॉलर से ज्यादा का है। ऐसे में कहा जा रहा है कि रूस पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के कारण यूरोपीय देशों को गैस न बेचकर अब एशियाई देशों में नए खरीदार ढूंढ रहा है।
किसके साथ खड़ा है भारत?
दोनों देशों के बीच युद्ध छिड़ने की आशंका के बीच भारत ने इस मसले पर सभी पक्षों से शांति की अपील की है और यूक्रेन के प्रभावित क्षेत्रों से एयर इंडिया की विशेष उड़ानों के जरिए फंसे भारतीयों को निकाला जा रहा है। रूस और यूक्रेन की बीच चल रहे तनाव पर भारत करीब से नजर रखे हुए हैं। भारत के दोनों ही देशों से गहरे संबंध है। रूस भारत का अहम रक्षा साझीदार है और यूक्रेन में भारत से बड़ी संख्या में बच्चे मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं।
रूस-यूक्रेन के विवाद में भारत की स्थिति भी बहुत महत्वपूर्ण है। रूस और अमेरिका दोनों भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारत अभी भी अपने 55 फीसदी हथियार रूस से खरीदता है जबकि अमेरिका के साथ भारत के संबंध पिछले 10 वर्षों में काफी मजबूत हुए हैं। जिस देश में यूक्रेन ने सबसे पहले फरवरी 1993 में एशिया में अपना दूतावास खोला वह भारत था। तब से भारत और यूक्रेन के बीच व्यापारिक, रणनीतिक और राजनयिक संबंध मजबूत हुए हैं। यानी भारत इनमें से किसी भी देश को परेशान करने का जोखिम नहीं उठा सकता।
रूस ने अब तक भारत-चीन सीमा विवाद पर तटस्थ रुख अपनाया है। अगर भारत यूक्रेन का समर्थन करता है तो वह कूटनीतिक रूप से रूस को चीन के पक्ष में ले जाएगा. शायद यही कारण है कि हाल ही में जब अमेरिका सहित 10 देश संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन पर एक प्रस्ताव लेकर आए भारत ने किसी के पक्ष में मतदान नहीं किया। भारत के लिए चिंता की बात यह भी है कि इस समय यूक्रेन में करीब 20,000 भारतीय फंसे हुए हैं जिनमें से 18 हजार मेडिकल के छात्र हैं।
भारत को रूसी कार्रवाइयों से आने वाली कुछ तात्कालिक चुनौतियों के लिए खुद को तैयार करना होगा। इसे अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन की निंदा करने के लिए एक रणनीतिक साझेदार के दबाव को संतुलित करना होगा, दूसरे से अपनी वैध चिंताओं को समझने के लिए। हम 2014 में वहां थे, और दबावों को प्रबंधित किया। जैसे-जैसे रूस-पश्चिम टकराव और तेज होगा, यूरोप में अमेरिकी प्रशासन की तीव्र भागीदारी अनिवार्य रूप से इंडो-पैसिफिक पर अपना ध्यान केंद्रित करेगी, जिससे भारत अपने पड़ोस में कार्रवाइयों का कुछ सामरिक अंशांकन करेगा। भू-राजनीति, हालांकि, एक लंबा खेल है, और यू.एस.-चीन प्रतिद्वंद्विता के संदर्भ में , इस सवाल को फिर से खोल सकता है कि रूस यूरोपीय सुरक्षा व्यवस्था में कैसे फिट बैठता है।
रूस और यूक्रेन युद्ध का विश्व अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
दुनिया की कई इकोनॉमी मंदी के चपेट में आ जाएगी। खासकर कमोडिटी मार्केट तबाह हो जाएगा. कच्चे तेल का भाव और बढ़ जाएगा। यूरोप में नैचुरल गैस और इलेक्ट्रिसिटी का रेट पहले ही 10 फीसदी तक बढ़ चुका है। बेस मेटल की कीमत बढ़ जाएगी। गेहूं भी महंगा हो जाएगा।
कमोडिटी मार्केट में रूस का बड़ा रोल है। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट में जेपी मॉर्गन के हवाले से लिखा गया है कि ग्लोबल प्रोडक्शन मे रूस के शेयर की बात करें तो पैलेडियम प्रोडक्शन में रूस की हिस्सेदारी 45.6 फीसदी, प्लैटिनम में 15.1 फीसदी, गोल्ड में 9.2 फीसदी, सिल्वर में 2.6 फीसदी, ऑयल में 8.4 फीसदी, गैस में 6.2 फीसदी, निकेल में 5.3 फीसदी, गेहूं में 5 फीसदी, एल्युमिनियम में 4.2 फीसदी , कोयला में 3.5 फीसदी, कॉपर में 3.3 फीसदी और सिल्वर में 2.6 फीसदी है।
- ग्लोबल व्हीट प्रोडक्शन में रूस का बड़ा योगदान है। अनाज के निर्यातकों की बात करें तो रूसके अलावा यूक्रेन, कजाकिस्तान और रोमानिया ब्लैक सी पोर्ट की मदद से दुनिया में एक्सपोर्ट करते हैं। अब सप्लाई पर असर होगा और कीमत बढ़ जाएगी। यूकेन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मक्के का निर्यातक है, जबकि गेहूं का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक है। इंटरनेशनल ग्रेन काउंसिल के मुताबिक, रूस दुनिया का सबसे बड़ा गेहूं निर्यातक है।
- रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध से कच्चे तेल का भाव बढ़ गया है। ऐसे में महंगाई में और तेजी आने से निवेशक सुरक्षित निवेश की तरफ आकर्षित होंगे और बॉन्ड में निवेश बढ़ जाएगा। इसके अलावा सोने की कीमत में भी तेजी आएगी। सोना पहले से ही 50 हजार के पार पहुंच चुका है।
- रूस कच्चे तेल का बड़ा उत्पादक है. ऐसे में दुनिया की कई कंपनियां वहां की तेल कंपनियों के साथ करार में हैं. ब्रिटेन के BP के पास रसियन ऑयल कंपनी Rosneft में 19.75 फीसदी हिस्सेदारी है। बीपी के कुल प्रोडक्शन में एक तिहाई इसका योगदान है। उसी तरह इंग्लैंड की एक और कंपनी Shell plc भी रूस की पहली LNG प्लांट में साझेदार है। अमेरिकी कंपनी Exxon सब्सिडियरी की मदद से रूस की कंपनियों में पार्टनर है। इसी तरह ऑस्ट्रिया का Raiffeisen Bank समेत दर्जनों कंपनियां रूस में सीधे या परोक्ष रूप से निवेश की हैं।
- इस टेंशन के बढ़ने से एनर्जी मार्केट पर बुरा असर होगा। यूरोप अपनी 35 फीसदी नैचुरल गैस की आपूर्ति के लिए पूरी तरह रूस पर निर्भर है। यह सप्लाई पाइपलाइन की मदद से है जो बेलारूस, पोलैंड, जर्मनी , नॉर्ड स्ट्रीम और यूक्रेन से होकर गुजरती है। इसके अलावा रूस कई देशों को कच्चे तेल की सप्लाई भी करता है। अगर टेंशन बढ़ती है तो तेल और गैस की सप्लाई पर असर होगा, साथ ही इसकी कीमत बढ़ जाएगी। जेपी मॉर्गन का कहना है कि टेंशन बढ़ने से कच्चे तेल का भाव 150 डॉलर तक पहुंच सकता है। इसके कारण ग्लोबल जीडीपी में 0.9 फीसदी की गिरावट आएगी।
इन सबका असर महंगाई पर होगा। इसके बाद फेडरल रिजर्व इंट्रेस्ट रेट जल्दी बढ़ाएगा। दुनियाभर के ब्रोकरेज का अनुमान है कि इस साल फेडरल रिजर्व 6-7 बार इंट्रेस्ट रेट बढ़ा सकता है। इसके कारण रिजर्व बैंक पर भी इंट्रेस्ट रेट बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा। अगर रिजर्व बैंक ऐसा कुछ करता है तो इकोनॉमिक रिकवरी की रफ्तार पर असर होगा।
Also refer :
- Download the pdf of Important MCQs From the History Of Ancient India
- List Of Important Inscriptions In India