क्या है वन नेशन वन इलेक्शन
‘एक देश, एक चुनाव’ (वन नेशन वन इलेक्शन) के प्रस्ताव को केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी मिल गई है। इसका उद्देश्य लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ करना है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि चुनावों में होने वाले वित्तीय खर्चे में कटौती की जा सके। ‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थकों का तर्क है कि यह कदम चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित कर सकता है, खर्चों को कम कर सकता है और बार-बार चुनावों के कारण होने वाली परेशानियों को कम कर सकता है। हालांकि, आलोचक इसे लेकर कई तरह के सवाल उठाते रहे हैं।
भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराने का मुद्दा साल 1983 में भी उठा था, लेकिन उस वक़्त केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार ने इसे कोई महत्व नहीं दिया था।
उसके बाद साल 1999 में भारत में ‘लॉ कमीशन’ ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था। उस वक़्त केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही थी।
साल 2014 में बीजेपी ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया था। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2024 को लाल क़िले से दिए अपने भाषण में भी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का ज़िक्र किया था।
भारत में चुनाव का एक ऐसा चक्र बना हुआ है, जिससे ऐसा लगता है कि देश में चुनाव होते ही रहते हैं। आजादी के बाद से देश में कई चुनाव हुए हैं, जिससे अक्सर संसाधनों और प्रशासनिक मशीनरी पर काफी दबाव पड़ता है। ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा नई नहीं है। जानकारों का मानना है कि यह प्रक्रिया उतनी की पुरानी है जितना हमारा संविधान।
क्या यह चुनाव व्यवस्था देश के लिए नई है?
नहीं, यह कांसेप्ट भारत के लिए नया नहीं है। साल 1950 में गणतंत्र होने के बाद, 1951 से लेकर 1967 के बीच हर पांच साल में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे। देश में मतदाताओं ने साल 1952, 1957, 1962 और 1967 में केंद्र और राज्यों के लिए एक साथ मतदान किया। हालांकि तब भी 1955 में आंध्र राष्ट्रम (जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1960-65 में केरल और 1961 में ओडिशा में अलग से चुनाव हुए थे.
लेकिन देश में कुछ पुराने राज्यों का पुनर्गठन और नए राज्यों के उभरने के साथ इस प्रक्रिया को साल 1968-69 में पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया। 1970 में लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी। इसके चलते एक देश एक चुनाव की गाड़ी पटरी से उतर गई।
कमेटी ने कितने दिन में तैयार की रिपोर्ट?
वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर 2 सितंबर, 2023 को एक कमिटी गठित की गई थी। इसकी अध्यक्षता पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कर रहे थे। कमेटी के सदस्यों ने सात देशों की चुनाव व्यवस्था का अध्ययन किया।
स्टेकहोल्डर्स-एक्सपर्ट्स से चर्चा और रिसर्च के बाद 191 दिन में 18 हजार 626 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की गई। कमेटी ने यह रिपोर्ट 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी गई। रिपोर्ट में सभी विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 तक करने का सुझाव दिया है।
वन नेशन वन इलेक्शन कमेटी कितने और कौन-कौन है सदस्य?
पूर्व राष्ट्रपति, एक वकील, तीन नेता और तीन पूर्व अफसर समेत आठ लोग कमेटी के सदस्य हैं।
- रामनाथ कोविंद, अध्यक्ष (पूर्व राष्ट्रपति)
- हरीश साल्वे, वरिष्ठ अधिवक्ता
- अमित शाह, गृह मंत्री (बीजेपी)
- अधीर रंजन चौधरी, कांग्रेस नेता
- गुलाम नबी, डीपीए पार्टी
- इनके सिंह, 15वें वित्त आयोग पूर्व अध्यक्ष
- डॉ. सुभाष कश्यप, लोकसभा के पूर्व महासचिव
- संजय कोठारी, पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त
कमेटी ने किस-किस से की थी बात
- ‘एक देश एक चुनाव’ पर समिति ने 191 दिन तक काम किया और 21,558 लोगों से राय ली।
- 80% लोगों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया।
- 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए थे जिनमें से 32 राजनीतिक दल ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के समर्थन में थे।
- समिति ने पूर्व मुख्य न्यायाधीशों, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों, चुनाव आयुक्तों और राज्य चुनाव आयुक्तों से भी बात की।
- ‘एक देश एक चुनाव’ दो चरणों में लागू होगा। पहले चरण में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे। दूसरे चरण में स्थानीय निकाय चुनाव (पंचायत और नगरपालिका) होंगे।
कमेटी ने क्या सुझाव दिए?
- सभी विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव यानी 2029 तक बढ़ाया जाए।
- पहले चरण में लोकसभा-विधानसभा चुनाव और फिर दूसरे चरण में 100 दिन के भीतर स्थानीय निकाय चुनाव कराए जा सकते हैं।
- चुनाव आयोग लोकसभा, विधानसभा व स्थानीय निकाय चुनावों के लिए सिंगल वोटर लिस्ट और वोटर आईडी कार्ड बनाए।
- देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए उपकरणों, जनशक्ति और सुरक्षा बलों की एडवांस प्लानिंग करने की भी सिफारिश की है।
कोविंद पैनल के 5 सुझाव
- सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव यानी 2029 तक बढ़ाया जाए।
- हंग असेंबली (किसी को बहुमत नहीं), नो कॉन्फिडेंस मोशन होने पर बाकी 5 साल के कार्यकाल के लिए नए सिरे से चुनाव कराए जा सकते हैं।
- पहले फेज में लोकसभा-विधानसभा चुनाव एकसाथ कराए जा सकते हैं, उसके बाद दूसरे फेज में 100 दिनों के भीतर लोकल बॉडी के इलेक्शन कराए जा सकते हैं।
- चुनाव आयोग लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय चुनावों के लिए राज्य चुनाव अधिकारियों के परामर्श से सिंगल वोटर लिस्ट और वोटर आई कार्ड तैयार करेगा।
- कोविंद पैनल ने एकसाथ चुनाव कराने के लिए उपकरणों, जनशक्ति और सुरक्षा बलों की एडवांस प्लानिंग की सिफारिश की है।
क्या बिल को कानून बनाने में कोई अड़चन आएगी
- कोविंद कमेटी ने 18 संवैधानिक बदलावों का सुझाव दिया है, इनमें से ज्यादातर में राज्यों की विधानसभाओं के सहमति की जरूरत नहीं है।
- कुछ संवैधानिक बदलावों के लिए बिलों को संसद में पास कराना जरूरी होगा।
- सिंगल इलेक्टोरल रोल और सिंगल वोटर आईडी कार्ड के लिए आधे से ज्यादा राज्यों की मंजूरी जरूरी होगी।
- संभव है कि कोविंद कमेटी की रिपोर्ट पर लॉ कमीशन भी अपनी रिपोर्ट पेश करे।
- सूत्रों का कहना है कि लॉ कमीशन 2029 में लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकायों और पंचायत चुनाव एकसाथ कराने का सुझाव दे।
- इसके अलावा लॉ कमीशन गठबंधन सरकार और हंग असेंबली जैसी स्थिति आने पर नियम की मांग करे।
अभी ऐसी है वन नेशन-वन इलेक्शन की संभावना
एक देश-एक चुनाव लागू करने के लिए कई राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल घटेगा। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव 2023 के आखिर में हुए हैं, उनका कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विधि आयोग के प्रस्ताव पर सभी दल सहमत हुए तो यह 2029 से ही लागू होगा। साथ ही इसके लिए दिसंबर 2026 तक 25 राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने होंगे।
पहला चरणः 6 राज्य, वोटिंगः नवंबर 2025 में
- बिहारः मौजूदा कार्यकाल पूरा होगा। बाद का साढ़े तीन साल ही रहेगा।
- असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी मौजूदा कार्यकाल 3 साल 7 महीने घटेगा। उसके बाद का कार्यकाल भी साढ़े 3 साल होगा।
दूसरा चरणः 11 राज्य, वोटिंगः दिसंबर 2026 में
- उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंडः मौजूदा कार्यकाल 3 से 5 महीने घटेगा। उसके बाद सवा दो साल रहेगा।
- गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुराः मौजूदा कार्यकाल 13 से 17 माह घटेगा। बाद का सवा दो साल रहेगा।
इन दो चरणों के बाद देश की सभी विधानसभाओं का कार्यकाल जून 2029 में समाप्त होगा। सूत्रों के अनुसार, कोविंद कमेटी विधि आयोग से एक और प्रस्ताव मांगेगी, जिसमें स्थानीय निकायों के चुनावों को भी शामिल करने की बात कही जाएगी।
शीतकालीन सत्र में लाया जा सकता है बिल
एक देश एक चुनाव पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की रिपोर्ट को आज नरेंद्र मोदी कैबिनेट से मंजूरी मिल गई है। माना जा रहा है कि अब केंद्र सरकार इसे शीतकालीन सत्र में संसद में लाएगी। हालांकि, ये संविधान संशोधन वाला बिल है और इसके लिए राज्यों की सहमति भी जरूरी है। 2024 के आम चुनाव में बीजेपी ने वन नेशन वन इलेक्शन का वादा किया था।
इन देशों में लागू है यह चुनाव व्यवस्था
- दक्षिण अफ्रीका
- स्वीडन
- बेल्जियम
- जर्मनी
- फिलीपींस
वन नेशन वन इलेक्शन की चुनौतियां
रिपोर्ट में कहा गया कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का विरोध करने वालों की दलील है कि “इसे अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा. ये अलोकतांत्रिक, संघीय ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलग-अलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा.” रिपोर्ट के अनुसार इसका विरोध करने वालों का कहना है कि “ये व्यवस्था राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगी.”
क्षेत्रीय दल क्यों कर रहे हैं विरोध?
विपक्षी दल जैसे – कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बसपा और सपा इसका विरोध करते इस असंवैधानिक और लोकतंत्र विरोधी करार देते आ रहे हैं। इतना ही नहीं, क्षेत्रीय दल को डर है कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे तो राष्ट्रीय मुद्दे प्रमुख हो जाएंगे और वे स्थानीय मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठा नहीं पाएंगे।
साल 2015 में IDFC की ओर से जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 77 % संभावना इस बात की होती है कि मतदाता राज्य और केंद्र में एक ही पार्टी को चुनते हैं, जबकि अलग-अलग चुनाव होने पर केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी को चुनने की संभावना घटकर 61% हो जाती है।
वन नेशन वन इलेक्शन को लागू करने में प्रमुख चुनौतियां निम्न हैं
- देश में एक राष्ट्र एक चुनाव व्यवस्था लागू करने के लिए संविधान में कई संशोधन करने की जरूरत पड़ेगी।
- लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्षों का होता है, लेकिन इसे उससे पहले भी भंग किया जा सकता है। ऐसे में एक देश-एक चुनाव संभव नहीं होगा।
- लोकसभा की तरह ठीक विधानसभा का भी कार्यकाल पांच साल का होता है और ये भी पांच साल से पहले भंग हो सकता है। अब ऐसे में सरकार के सामने चुनौती होगी कि एक देश-एक चुनाव का क्रम कैसे बरकरार रखा जाए।
- एक देश-एक चुनाव पर देश के सभी दलों को एक साथ लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि इस पर सभी पार्टियों के अलग-अलग मत हैं।
- ऐसा माना जाता है कि एक देश-एक चुनाव से राष्ट्रीय पार्टी को फायदा पहुंचेगा, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों को इसका खामियाजा भुगतना होगा। यानी कि उन्हें नुकसान पहुंचेगा।
- फिलहाल देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग-अलग होते हैं, जिस वजह से ईवीएम और वीवीपैट की सीमित संख्या हैं, लेकिन अगर एक देश-एक चुनाव होते हैं तो एक साथ इन मशीनों की अधिक मांग होगी, जिसे पूर्ति करना बड़ी चुनौती होगी।
- अगर एक साथ चुनाव कराए जाते हैं, तो अतिरिक्त अधिकारियों और सुरक्षाबलों की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में ये भी एक बड़ी चुनौती होंगी।
वन नेशन वन इलेक्शन लागू होने के क्या फायदे हैं?
- चुनाव खर्च में कटौती: देश में बार-बार चुनाव कराने पर लॉजिस्टिक्स, सुरक्षा और जनशक्ति समेत कई चीजों पर बहुत पैसा खर्च होता है। इस साल हुए लोकसभा चुनाव में अनुमानित कुल खर्च करीब 1.35 लाख करोड़ रुपये तक हुआ है, जोकि 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में बहुत अधिक है। 2019 में 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। अगर राज्यवार विधानसभा व स्थानीय चुनाव का खर्च भी जोड़ा जाए तो अंदाजा लगाइए कि ये खर्च कितना होगा। ऐसे में वन नेशन वन इलेक्शन लागू होने पर चुनाव खर्च में कम होगा।
- प्रशासनिक कार्यक्षमता में वृद्धि: चुनाव के दौरान आचार संहिता लागू होने से नीति निर्माण और विकास कार्यों में रुकावट आती है। अगर पांच साल में सिर्फ एक बार आचार संहिता लागू होगी तो स्वाभाविक है कि प्रशासनिक कार्यों में तेजी आएगी।
- देश में हर छह माह चुनाव होने पर प्रशासनिक मशीनरी और सुरक्षाबलों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। एक साथ चुनाव कराने से संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सकता है।
- लुभावने वादे नहीं आएंगे काम : बार-बार चुनाव लोकलुभावन नीतियों को बढ़ावा देते हैं। एक साथ चुनाव लंबी अवधि की नीति योजना और सतत विकास पर ध्यान केंद्रित करने में मददगार साबित होंगे।
- वोट प्रतिशत में वृद्धि: एक साथ चुनाव होने से मतदाता एक ही समय में कई वोट डाल सकते हैं, जिससे मतदाता भागीदारी में वृद्धि हो सकती है।
- चुनावों में ब्लैक मनी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है और अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो इसमें काफ़ी कमी आएगी। दूसरे चुनाव ख़र्च का बोझ कम होगा, समय कम ज़ाया होगा और पार्टियों और उम्मीदवारों पर ख़र्च का दबाव भी कम होगा।
- पार्टियों पर सबसे बड़ा बोझ इलेक्शन फ़ंड का होता है। ऐसे में छोटी पार्टियों को इसका फ़ायदा मिल सकता है क्योंकि विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग-अलग चुनाव प्रचार नहीं करना पड़ेगा।
आपने ऊपर वन नेशन वन इलेक्शन के बहुत से फायदे पढ़े, इसके वावजूद भी इसकी सबसे बड़ी चुनौती यही है जिसके कारण देश में पहली बार वन नेशन वन इलेक्शन की परम्परा टूटी। क्योंकि इसकी कोई गारण्टी नहीं है कि 2029 के चुनाव के बाद राज्य या देश में मध्यावधि चुनाव की जरुरत न पड़े। हमारे देश में नेता रातोंरात एक पार्टी से पाला बदल कर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लेते हैं। वैसी स्थिति में मध्यावधि चुनाव कभी भी हो सकते हैं। इसलिए वन नेशन वन इलेक्शन लागू करने के लिए संविधान में जो भी संसोधन करना होगा, उसमें एक प्रमुख संसोधन दल – वदल कानून को भी मजबूत करने की होगी।
Also refer :
- Download the pdf of Important MCQs From the History Of Ancient India
- List Of Important Inscriptions In India
- भारत के प्रमुख गवर्नर-जनरल और वायसराय
- प्राचीन भारत के बंदरगाह