बिहार में आदिवासी आन्दोलन
तिलका आंदोलन: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- वर्ष 1784 ई. में तिलका मांझी ने अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया, जिसे ‘तिलका आंदोलन’ के नाम से जाना गया।
- इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासी स्वायत्ता की रक्षा एवं इस क्षेत्र से अंग्रेजों को खदेड़ना था। इन्होंने आधुनिक रॉबिनहुड की भांति अंग्रेजी खजाना लूट कर गरीबों एवं जरूरतमंदों के बीच बांटना प्रारंभ किया। तिलका मांझी द्वारा गांव-गांव में सखुआ पत्ता घुमाकर विद्रोह का संदेश भेजा जाता था।
- तिलका मांझी ने सुल्तानगंज की पहाड़ियों से छापामार युद्ध का नेतृत्व किया।
- तिलका मांझी के तीरों से मारा जाने वाला अंग्रेज सेना का नायक अगस्टीन क्लीवलैंड था।
- 1785 ई. में तिलका मांझी को धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया और भागलपुर में बरगद पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गयी।
- वह स्थान आज भागलपुर में बाबा तिलका मांझी चौक के नाम से प्रसिद्ध है।
- भारतीय स्वाधीनता संग्राम के पहले विद्रोही शहीद तिलका मांझी थे।
- सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि तिलका विद्रोह में महिलाओं की भी भागीदारी थी, जबकि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महिलाओं ने काफी बाद में हिस्सा लेना प्रारंभ किया।
चुआर विद्रोह: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- विद्रोह की अवधि: (1769-1805 ई.)
- चुआड़ विद्रोह अकाल, लगान में वृद्धि, जमीन की नीलामी एवं अन्य आर्थिक मुद्दों को लेकर किया गया।
- चुआड़ विद्रोह के प्रमुख नेताओं के नाम हैं – रघुनाथ महतो, श्याम गंजम, सुबल सिंह, जगन्नाथ पातर, मंगल सिंह, दुर्जन सिंह, लाल सिंह, मोहन सिंह आदि।
- रघुनाथ महतो ने 1769 में नारा दिया ‘अपना गांव अपना राज, दूर भगाओ विदेशी राज।’
- 1798 के अप्रैल महीने में वीरभूम के जंगल महाल के ही घाटशिला, बिंदू मंडलकुंडा, पुरुग्राम आदि के चुआड़ों एवं मिदनापुर के चुआड़ों ने अंग्रेजों के द्वारा जमीन पर लगान बढ़ाए जाने खिलाफ पनपे आर्थिक असंतोष के चलते विद्रोह कर दिया।
- जून में बांकुड़ा के चुआड़ एवं पाइक तथा उड़ीसा के पाइक इसमें शामिल हो गये। विद्रोह के विस्तृत स्वरूप के आगे अंग्रेजी दमन काम नहीं आया एवं अंग्रेजों को विवश होकर चुआड़ एवं पाइक सरदारों को उनसे छीनी गयी जमीनें एवं सारी सुविधाएं वापस करनी पड़ी।
चेरो विद्रोह: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- वर्ष 1770-71 में पलामू के चेरो शासक चित्रजीत राय एवं उनके दीवान जयनाथ सिंह ने पलामू की राजगद्दी के दावेदार गोपाल राय की ओर से लड़ रहे अंग्रेजों के विरुद्ध एक विद्रोह किया, जिसे ‘चेरो विद्रोह’ की संज्ञा दी जाती है।
- वस्तुतः यह पलामू की राजगद्दी पर कब्जा करने की लड़ाई थी।
- अंततः अंग्रेज कैप्टेन जैकब कैमक चेरो विद्रोहियों को हराने एवं पलाम पर कब्जा करने में सफल हुआ। 1 जुलाई, 1771 ई. को गोपाल राय को पलामू का राजा घोषित किया गया।
चेरो आंदोलन (1800–1818): बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- पलामू की चेरो जनजाति ने ज्यादा कर वसूली एवं उपाश्रित पट्टों के पुनः अधिग्रहण के खिलाफ 1800 ई. में भूखन सिंह के नेतृत्व में विद्रोह किया। इसे दबाने में अंग्रेजों ने छल–कपट एवं चालाकी का सहारा लिया।
- इस विद्रोह के परिणामस्वरूप 1809 ई. में ब्रिटिश सरकार ने छोटानागपुर में शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए जमींदारी पुलिस बल का गठन किया।
- 1814 में पलामू परगने की नीलामी की आड़ में अंग्रेजों ने इस पर अपना कब्जा कर लिया एवं शासन का दायित्व भारदेव के राजा घनश्याम सिंह को दे दिया।
- अंग्रेजों की इस साजिश के खिलाफ 1817 में पुनः इन्होंने जनजातीय सहयोग को सुनिश्चित कर विद्रोह किया, परन्तु इसे भी दबा दिया गया। इस विद्रोह का दमन कर्नल जोंस द्वारा किया गया।
पहाड़िया विद्रोह (1772-82): बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- पहाड़िया जनजाति संथाल परगना प्रमंडल की प्राचीनतम जनजाति है। वास्तव में यही यहां के प्रथम आदिम निवासी हैं।
- पहाड़िया जनजाति राजपूत, मुस्लिम, मुगल एवं ब्रिटिश काल में विदेशी ताकतों से संघर्षरत रही।
- अंग्रेजों के खिलाफ इन्होंने कई विद्रोह किये, जिन्हें जनजातियों के संघर्ष के इतिहास में विदेशी शासन के विरुद्ध प्रथम व्यापक विद्रोह माना गया है।
- अंग्रेजों ने पहाड़िया संघर्ष को दबाने हेतु 1824 में इनकी भूमि को. ‘दामिन-ए-कोह’ नाम देकर सरकारी संपत्ति घोषित कर दी।
तमाड़ विद्रोह (1782-1820 ई.): बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- तमाड़ विद्रोह का मुख्य कारण आदिवासियों को भूमि से वंचित किया जाना था। अंग्रेजी कंपनी, तहसीलदारों, जमींदारों एवं गैर आदिवासियों (दिकू) द्वारा उनका शोषण किया जाना था।
- इस विद्रोह का प्रारंभ 1782 में छोटानागपुर की उरांव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ हुआ, जो 1794 तक चला।
- ठाकुर भोलानाथ सिंह के नेतृत्व में यह विद्रोह प्रारंभ हुआ था। इतिहास में यही ‘तमाड़ विद्रोह‘ के नाम से प्रसिद्ध है।
- 1809 में अंग्रेजों ने छोटानागपुर में शांति की स्थापना हेतु जमींदारी पुलिस बल की व्यवस्था की पर कोई भी फर्क नहीं आया। क्योंकि पुनः 1807, 1811, 1817 एवं 1820 में मुंडा एवं उरांव जनजातियों ने जमींदारों एवं दिकूओं के खिलाफ आवाज बुलंद की।
- 1807 में तमाड़ के दुख मानकी एवं 1819-20 में रुगु एवं कोनता के नेतृत्व में मुंडाओं ने विद्रोह किया।
कोल विद्रोह: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- काल : 1831-32
- शामिल जनजातियाँ : मुंडा,हो, उराँव खेरवार, चेरो
- कारण : आदिवासियों के जमीं पर गैर-आदिवासियों द्वारा कब्ज़ा
- नेता : बुधू भगत, गंगा नारायण, सिंगराय, सुरगा मुंडा
- छोटानागपुर में अगर किसी ने अंग्रेज शासकों एवं जमींदारों को सर्वाधिक परेशान किया तो, वे थे कोल विद्रोही।
- यह मुंडा जनजाति का विद्रोह था, जिसमें ‘हो’ जाति ने भी खुलकर साथ दिया था।
- कोल विद्रोह का प्रमुख कारण ‘भूमि संबंधी असंतोष’ था।
- इस विद्रोह का एक प्रमुख नेता बुधु भगत था। इस युद्ध में वह अपने भाई, पुत्र और 100 अनुयायियों सहित मारा गया।
- विद्रोह दबा दिया गया, पर गांव के मुखिया (मुंडा) एवं सात से बारह गांवों को मिलाकर बनाए गए पीर के प्रधान (मानकियों) की जमीन लौटा दी गयी।
- इस विद्रोह के परिणामस्वरूप 1833 ई. में एक नये प्रांत दक्षिण पश्चिम सीमा एजेंसी का गठन हुआ। बाद में ‘मानकी मुंडा पद्धति‘ को वित्तीय एवं न्यायिक अधिकार भी दिये गये।
हो विद्रोह: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- काल : 1820-21 ई.
- यह विद्रोह भी अंग्रेजों एवं जमींदारों के शोषण के खिलाफ था।
- इस विद्रोह का मुख्य कारण राजा जगन्नाथ सिंह द्वारा शोषण तथा उसका अंग्रेजों का पिछलग्गूपन होना था।
- 1820-21 में मेजर रुसेज एवं 1837 में कैप्टन विलकिंसन के नेतृत्व में हो विद्रोह को दबा दिया गया।
भूमिज विद्रोह: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- काल : 1832-33ई.
- नेता : गंगा नारायण
- शामिल जनजातियाँ : भूमिज
- इस विद्रोह के सेनानायक भी कोल ही थे. अतः इस विद्रोह को कोल विद्रोह की ही एक श्रृंखला की संज्ञा दी जा सकती है.
- यह विद्रोह वीरभूम (बड़ाभूम) राजा, पुलिस अधिकारियों, मुंसिफ, नमक दारोगा तथा अन्य दिक्कूओं के खिलाफ भूमिजों की शिकायतों की देन था।
- विद्रोह का दूसरा कारण स्थानीय व्यवस्था पर कम्पनी की शासन व्यवस्था का थोपा जाना था। साथ ही, इसके पीछे अंग्रेजों की दमनकारी लगान व्यवस्था से उत्पन्न असंतोष भी काम कर रहा था।
- भूमिज विद्रोह की विधिवत शुरुआत 26 अप्रैल, 1832 ई. को वीरभूम परगना के जमींदार के सौतेले भाई और दीवान माधव सिंह की हत्या के साथ हुई।
- यह हत्या गंगा नारायण सिंह के द्वारा की गयी। गंगा नारायण वीरभूम के जमींदार का चचेरा भाई था। दीवान के रूप में माधव सिंह काफी बदनाम हो चुका था। उसने कई तरह के करों को लगाकर जनता को तबाह कर दिया था।
- माधव सिंह के खिलाफ गंगा नारायण ने भूमिजों को एक अभूतपूर्व नेतृत्व प्रदान किया। माधव सिंह का अंत करने के पश्चात गंगा नारायण की टक्कर कंपनी के फौज के साथ हुई। कंपनी की फौज का नेतृत्व ब्रैडन एवं लेफ्टिनेंट टिमर के हाथों में था।
- कोल एवं हो जनजातियों ने. इस विद्रोह में गंगा नारायण का खुलकर साथ दिया।
संथाल विद्रोह: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- काल : 1855-56
- नेता : सिद्धू, कान्हू, चाँद, भैरव
- कारण : साहूकार, ठेकेदार एवं पुलिसिया अत्याचार
- शामिल जनजाति : संथाल
- जनजातीय विद्रोहों में संथाल विद्रोह सबसे जबरदस्त था। इस विदोह को हूल आंदोलन, संथाल हूल आदि कई नामों से जाना जाता है।
- संथाल विद्रोह के प्रणेता सिदो-कान्हू थे। इसमें इनके भाई-चांद व भैरव तथा बहन-झानो व फूलो ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
- संथाल विद्रोह का प्रमुख कारण अंग्रेजी उपनिवेशवाद और उसमें निहित शोषण, बंगाली एवं पछाही महाजनों तथा साहूकारों का शोषण था।
- यह विद्रोह गैर-आदिवासियों को भगाने, उनकी सत्ता समाप्त कर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए छेड़ा गया था।
- 30 जून, 1855 को भोगनाडीह में 400 आदिवासी गावों के लगभग पर दस हजार आदिवासी प्रतिनिधि इकटठे हुए और सभा की।
- इस सभा में “अपना देश और अपना राज’ का नारा दिया गया। इसे साकार करने हेतु बाहरी लोगों को यहां से भगाने के लिए खुला विद्रोह करने का निर्णय लिया गया।
- इस सभा में सिदो को राजा, कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासक का तथा भैरव को सेनापति चुना गया।
- 7 जुलाई, 1855 को प्रारंभ इस विद्रोह को दबाने हेतु जनरल लायड के नेतृत्व में एक फौजी टुकड़ी भेजी गयी।
- 10 जुलाई, 1855 को मेजर बारो पराजित हुआ।
- 16 एवं 17 सितंबर को मुचिया कोमनाजेला, रामा एवं सुन्दरा मांझी के नेतृत्व में लगभग तीन हजार विद्रोहियों ने कई थानों एवं गांवों हा पर कब्जा कर लिया।
- पश्चिम के जिलें चार महीनों तक संथालों के कब्जे में रहे। 13 नवम्बर को वहां फौजी कानून लगा दिया गया।
- 1855 ई. में प्रारंभ हुआ यह विद्रोह केवल संथाल परगना तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह हजारीबाग, वीरभूम सहित सम्पूर्ण छोटानागपुर में व्याप्त हो गया।
- हजारीबाग में संथाल आंदोलन का नेतृत्व लुलाई मांझी और अर्जुन मांझी ने संभाल रखी थी, जबकि वीरभूम में इसका नेतृत्व गोरा मांझी कर रहे थे।
- संथाल विद्रोह के दौरान महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दारोगा की हत्या कर दी गयी।
- इस आन्दोलन के प्रणेता सिदो एवं कान्हू को बड़हैत में फांसी पर लटका दिया गया, जबकि चांद एवं भैरव महेशपुर के युद्ध में अंग्रेजों की गोली के शिकार हुए।
- संथाल विद्रोह को दबाने के लिए कैप्टन अलेक्जेन्डर, ले. थामसन एवं ले. रीड ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
इस विद्रोह को संथाल परगना की प्रथम जनक्रांति माना जाता है। एल.एस.एस.ओ. मूले ने संथालों के विद्रोह को मुठभेड़ की संज्ञा दी है। कार्ल मार्क्स ने इसे भारत की प्रथम जनक्रांति कहा है, जो अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ तो नहीं सकी, पर सफाहोड़ आंदोलन को जन्म देने का कारण जरूर बन गयी। संथालों ने इस विद्रोह का ‘बुराई पर अच्छाई की विजय’ का नाम दिया।
संथाल विद्रोह के दो महत्वपूर्ण स्रोत दिगंबर चक्रवर्ती और छोटरे दसमन्जी के कथा वृतांत हैं। इस विद्रोह के दमन के बाद, संथाल क्षेत्र को एक पृथक नॉन रेगुलेशन जिला बनाया गया, जिसे संथाल परगना का नाम दिया गया।
मुंडा विद्रोह: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- काल : 1895-1900
- नेता : बिरसा मुंडा
- कारण : समाज सुधार एवं ब्रिटिश सत्ता का उत्पीड़न
- शामिल जनजाति : मुंडा
- इस आन्दोलन को उलगुलान के नाम से भी संबोधित किया गया था
- इस आन्दोलन के समर्थक एकेश्वरवाद(सिंगबोंगा) में विश्वास करते थे जो इसाई धर्म से प्रभावित था
- मुंडा विद्रोह आंदोलन के नायक बिरसा मुंडा को ‘धरती आबा‘ एवं ‘बिरसा भगवान‘ भी कहते हैं। इनका जन्म 15 नवम्बर, 1875 को उलिहातू गांव में हुआ था।
- इस आंदोलन को ‘उलगुलान’ (महान हलचल) भी कहते हैं।
- यह आंदोलन राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक उद्देश्यों से प्रेरित था एवं परिणाम की दृष्टि से अंग्रेजी शासन के खिलाफ हुए न जनजातीय आंदोलनों में सर्वाधिक प्रभावशाली एवं प्रसिद्ध हुआ।
- यह आन्दोलन मुख्यतः मुंडा जनजाति में प्रचलित सामूहिक खेती की व्यवस्था छूटकट्टी को समाप्त कर बैठ बेगारी प्रथा द्वारा उनका शोषण किये जाने के खिलाफ संगठित हुआ।
- इस विद्रोह का प्रारंभ 1895 में हुआ।
- 1895 में बिरसा ने स्वयं को भगवान का दूत घोषित किया।
- बिरसा ने सशस्त्र विद्रोह की योजना बनायी थी, परन्तु 24 अगस्त, 1895 को वे मेयर्स द्वारा कैद कर लिये गये। 30 नवम्बर, 1897 को उन्हें ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती मनाने के अवसर पर मुक्त कर दिया गया।
- डुबारू बुरू में बिरसा ने अपने विश्वासपात्र लोगों, मंत्रियों और प्रतिनिधियों की एक सभा बुलायी, जिसमें 25 दिसम्बर, 1899 को विद्रोह करने का निर्णय लिया गया।
- 25 दिसम्बर, 1899 को खूटी, रांची, तमाड़, बसिया, चक्रधरपुर आदि जगहों पर इनके नेतृत्व में आंदोलन हुआ।
- इन्होंने दोन्का मुंडा को राजनीतिक एवं सोमा मुंडा को धार्मिक एवं सामाजिक मामलों का प्रमुख बनाया।
- इनके प्रमुख सहयोगी गया मुंडा थे, जिन्हें सेनापति नियुक्त किया। जोहन मुंडा, रीढ़ा मुंडा, पंडु मुंडा, टिपरू मुंडा, डेमका मुंडा, हाथेराम मुंडा आदि को बिरसा ने सलाहकार के रूप में प्रयोग किया।
- खूटी, तोरपा, बुंडू, कर्रा, रांची, सिसई, बसिया आदि क्षेत्रों में बिरसा सैनिक सक्रिय थे।
- बिरसा आंदोलन का मुख्यालय खूटी था। इस आंदोलन को भी सरदारी आंदोलन माना जाता है। क्योकि सरदारी आन्दोलन के लोग मुण्डा विद्रोह में सम्मलित हो गए थे।
- इस विद्रोह के समय रांची के उपायुक्त स्ट्रेटफील्ड थे।
- 3 फरवरी, 1900 ई. को बंदगांव के जगमोहन सिंह के आदमी वीर सिंह महली आदि ने 500 रुपये ईनाम के लालच में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करवा दिया।
- बिरसा की मृत्यु 9 जून, 1900 को रांची जेल में हैजा से हुई। बिरसा आंदोलन के परिणामस्वरूप 1902 ई. में गुमला को एवं 1903 ई. में खूटी को अनुमंडल बनाया गया।
- 11 नवम्बर, 1908 ई. को छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लागू किया गया।
ताना भगत आंदोलन: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- नेता : जतरा भगत
- कारण : आदिवासियों में राजनीतिक चेतना का उदय
- मूलतः यह आंदोलन भी दिकुओं, जमींदारों एवं प्रशासन के अत्याचारों के विरुद्ध ही था
- शामिल जनजाति : उराँव, मुंडा, संथाल
- यह आंदोलन कांग्रेस के कार्यक्रम एवं गाँधीजी के विचारों से प्रभावित थे
- इस आन्दोलन ने ईसाई धर्म के प्रचारकों का विरोध किया
- यह आन्दोलन 1914 में जतरा उरांव के नेतृत्व में एक धार्मिकपंथ के रूप में शुरू हुआ जिसने एकेश्वरवाद, मांस-मदिरा एवं आदिवासी नृत्य पर पाबंदी और झूम खेती की वापसी की वकालत की।
- जतरा उरांव ने 1914 में आदिवासी समाज में पशु- बलि, मांस भक्षण, जीव हत्या, शराब सेवन आदि दुर्गुणों को छोड़ कर सात्विक जीवन यापन करने का अभियान छेड़ा। उन्होंने भूत-प्रेत जैसे अंधविश्वासों के खिलाफ सात्विक एवं निडर जीवन की नयी शैली का सूत्रपात किया। उस शैली से शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने की नयी दृष्टि आदिवासी समाज में पनपने लगी।
- इस आंदोलन को बिरसा आंदोलन का ही विस्तार माना जाता है।
- इस आन्दोलन का मुख्य क्षेत्र घाघरा, बिशुनपुर, चैनपुर, करायडीह, सिसई, कुडू, मांडर आदि थे।
- मांडर क्षेत्र में इस आन्दोलन का नेतृत्व शिबू भगत ने किया। घाघरा में बलराम भगत तथा विशुनपुर में भिखू भगत ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। सिसई थाने की देवमनिया नामक महिला ने इस आन्दोलन में सराहनीय भूमिका निभायी।
- 1916 ई. में जतरा भगत को डेढ़ वर्ष की सजा हुई। 1917 में जेल से रिहा होने के दो माह के अंदर ही उनका आकस्मिक निधन हो गया।
- इस आंदोलन में अहिंसा को संघर्ष के ‘अमोघ अस्त्र’ के रूप में स्वीकार किया गया।
- इस आंदोलन के तीसरे चरण के अन्तर्गत टाना भगतों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया।
- 1921 में महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’ में टाना भगतों ने ‘सिद्धू भगत’ के नेतृत्व में भाग लिया।
- टाना भगतों ने 1922 में कांग्रेस के गया तथा 1923 में नागपुर अधिवेशन में भाग लिया।
- 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में टाना भगतों ने महात्मा गांधी को 400 रु. की थैली भेंट की थी।
सफाहोड़ आंदोलन: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- इसे लाल हेम्ब्रम ने प्रारंभ किया था
- लाल हेम्ब्रम को लाल बाबा के नाम से भी पुकारा जाता था
- ये आंदोलनकारी ‘राम-नाम’ का मंत्र जपते थे, जनेऊ पहनते थे और प्रायः मांस-मदिरा का सेवन नहीं करते थे
- इस विद्रोह को जन्म देने का श्रेय लाल हेम्ब्रम उर्फ लाल बाबा को जाता है।
- इन्होंने पाया था कि संथाल विद्रोह की विफलता का सबसे बड़ा कारण लोगों में धार्मिक भावना तथा आत्मबल की कमी थी।अतः उन्होंने चारित्रिक बल पर जोर दिया।
- उन्होंने सफाहोड़ी आंदोलनकारियों को ‘राम-नाम’ का मंत्र दिया। वे संथालों को सफेद झंडी देते थे। उन्हें जनेऊ पहनाते थे एवं मांस मदिरा सेवन से रोकते थे।
- भयभीत होकर अंग्रेजों ने आंगन में तुलसी चौरा बनाने एवं राम-नाम जप पर पाबंदी लगा दी।
- लाल बाबा ने आजाद हिंद फौज की तर्ज पर संथाल परगना में ‘देशोद्धारक दल’ का गठन किया था।
- उनके सहयोगियों में पैका मुर्मू, पगान मरांडी, भतू सोरेन एवं रसिक लाल सोरेन प्रमुख थे।
सरदारी लड़ाई: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- काल : 1858-95 ई.
- इसे ‘मुल्की लड़ाई’ या ‘मिल्की लड़ाई’ भी कहा जाता है
- यह मूलतः जमींदारों के विरुद्ध था, जो जनजातियों की सरदारी छिन जाने से उत्पन्न हुआ था।
- समस्या के समाधान हेतु 1869 में छोटानागपुर टेंन्यूर्स एक्ट लागू किया गया था, परन्तु शिकायतें खत्म नहीं हुई, जिसके चलते यह आंदोलन हुआ। इसमें मुंडा सरदारों ने सामूहिक खेती के लिए आंदोलन किया।
खरवार आंदोलन: बिहार में आदिवासी आन्दोलन
- अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ हुए अहिंसात्मक संघर्ष में से एक खरवार आंदोलन था।
- यह आन्दोलन 1874 ई. में प्रारंभ हुआ।
- इसका नायक भागीरथ मांझी था।
- इसका स्वरूपं सफाहोड़ आंदोलन से किसी रूप में अलग नहीं था जो बाद के दिनों में अपने असली रूप में प्रकट हुआ।
- इसे मुखर करने का श्रेय राजमहल के भगवान दास एवं दुमका के लंबोदर मुखर्जी को जाता है।
- भागीरथ मांझी ने अंग्रेजी शासन के प्रति असहयोगात्मक नीति अपनाई थी एवं खुद को बौंसी गांव का राजा घोषित कर जमींदारों एवं सरकार को लगान नहीं देकर खुद लगान प्राप्त करने की पद्धति चलाई।
- इनके असहयोग से जुड़े पहलुओं को ही बाद में गांधी जी ने प्रयोग में लाया।
- भागीरथ मांझी का जन्म गोड्डा जिले के तलडीहा गांव में हुआ था, जहां. इन्होंने एक पीठ की स्थापना की थी।
- यह खरवार आंदोलन का दूसरा चरण 1881 की जनगणना के खिलाफ दुविधा गोसांई के नेतृत्व में हुए आंदोलन को माना जाता है।
- भागीरथ मांझी आदिवासियों में ‘बाबा’ के नाम से जाने जाते थे।
Also refer:
- बिहार सामान्य ज्ञान
- Top 50 Science MCQs For Competitive Exams
- Top 50 Science Questions From Previous Year UPSC Prelims